Sobhna tiwari

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परिणीता भाग :- ३

             Parineeta भाग :- ३


शेखर ने आँखें खोले बिना ही कह दिया-- कहीं रख जाओ।

मगर ललिता ने रक्खा नहीं। वह हाथ में लिये चुपचाप खड़ी रही।

शेखर को आँखें न खोलने पर भी मालूम पड़ रहा था कि ललिता वहीं खड़ी है, गई नहीं। दो-तीन मिनट चुप रहने के बाद शेखर ही फिर बोला-- कब तक इस तरह खड़ी रहोगी ललिता? मुझे अभी देर है; रख दो और नीचे जाओ।

ललिता चुपचाप खड़ी-खड़ी मन में बिगड़ रही थी। मगर उस भाव को दबाकर कोमल स्वर में बोली- देर है, तो होने दो, मुझे भी तो इस समय नीचे कोई काम नहीं करने को है।

अब की शेखर ने आँखें खोलकर देखा, और हँसते हुए कह्म-- भला मुँह से बोल तो फूटा! नीचे काम नहीं है, तो बगलवाले घर में बहुत काम होगा। वहाँ भी न हो तो उसके आगे के घर में काम की कमी न होगी। तुम्हारा घर एक ही तो नहीं है ललिता!

''सो तो है ही'' कहकर ललिता ने क्रोध के मारे मिठाई की रकाबी को तनिक जोर से टेबिल पर रख दिया, और तेजी के साथ कमरे के बाहर निकल गई।

शेखर ने पुकारकर कहा-- शाम के बाद जरा फिर हो जाना।

''सैकड़ों दफे ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना मुझसे नहीं हो सकता।'' यह कहती हुई वह चली गई।

नीचे आते ही मां ने कहा- अपने दादा को मिठाई और पानी तो दे आई, मगर पान भूल ही गई। फिर जाना पड़ेगा।

''मुझे तो बड़ी भूख लग रही है मां, अब मुझसे ऊपर चढ़ा-उतरा न जायगा, और किसी के हाथ भेज दो पान।'' यह कहने के साथ ही वह लद से नीचे बैठ गई। ललिता के मनोहर मुख-मण्डल में रोष का असन्तोष झलकता देखकर भुवनेश्वरी ने मन्द मुसकान के साथ कह दिया- अच्छा अच्छा, तू बैठकर खा-पी ले; किसी महरी के ही हाथ भेजे देती हूँ।

ललिता ने फिर कुछ कहा-सुना नहीं--जाकर भोजन करने बैठ गई।

वह उस दिन थियेटर देखने नहीं गई थी-फिर भी शेखर ने उसे बका-झका, यही ललिता को बुरा लगा। इसी पर रूठकर ललिता चार-पाँच दिन शेखर को नहीं दिखाई दी। मगर शेखर के दफ्तर जाने पर दोपहर को रोज जाकर वह शेखर के कमरे की सफाई वगैरह अपना काम सब कर आया करती रही। अपनी गलती मालूम होने पर शेखर ने दो दिन बराबर ललिता को बुला भेजा, मगर वह नहीं आई।

(4)

उस मोहल्ले में अक्सर एक दीन-दुखी बूढ़ा फकीर भीख मांगने आया करता था। उस बेचारे पर ललिता की बड़ी ममता थी। जब कभी वह भजन गाकर भिक्षा मांगता था, तो ललिता उसे एक रूपया दिया करती थी। एक रूपया प्राप्त होने पर उसके आनन्द का ठिकाना न रहता था। ललिता को वह सैकड़ों आशीर्वाद देता था और वह बड़े चाव से उन आशीर्वादो को सुनती थी। फकीर कहता था- ‘ललिता उस जन्म की मेरी माँ है!’ पहली दृष्टि पड़ते ही फकीर उसे अपनी माँ समझने लगा है। वह बड़े ही करूण स्वर में उसे अपनी माँ कहकर पुकारता है। आज भी उसने आते ही माँ को पुकार- ‘ओ माँ! मेरी माँ तुम आज कहाँ हो?’

आज इन प्रकार अपने बेटे की आवाज सुनते ही ललिता कठिनाई में पड़ गई। आखिर वह इस समय उसको रूपया दे, तो कहाँ से दे? इस समय शेखऱ घर में ही मौजूद होंगे और वह उनके सामने रूपया लाने जाए कैसे? वह उससे नाराज है। कुछ समय सोचते रहने के बाद वह अपनी मामी के पास गई। अभी-अभी उसकी मामी की झक-झक नौकरानी से हो गई थी। इस कारण मुंह लटकाए, खाने की तैयारी कर रही थी ऐसी स्थिति में ललिता को कुछ कहने की हिम्मत न हुई। वह वापस चली आई, और किवाड़ की ओट से देखा कि बूढ़ा फकीर चौंतरे पर अब भी बैठा है और भझन गाने में मस्त है। ललिता के हृदय में एक खलबली-सी मची थी। आज तक उसने इस फकीर को निराश नहीं लौटाया था, इसलिए वह आज भी लौटाना नहीं चाहती थी। उसका मन क्षुब्ध हो रहा था।

भिखारी ने फिर एक बार- ‘माँ’ कहकर पुकारा।

इसी बीच अन्नाकाली दौड़ती हुई आई और उसने सूचना दी कि ‘दीदी, तुम्हारा बूढ़ा बेटा बड़ी देर से आवाज लगा रहा है!’

ललिता ने कहा- ‘मेरी अच्छी अन्नो! जरा सुन तो! अगर तू मेरा एक जरूरी काम कर दे तो मैं तुझे अच्छी-अच्छी चीजें दूंगी। तू झल्दी से चली जा, शेखर भैया से एक रूपया लेकर आ!’

अन्नाकाली तेजी से दौड़ती हुई गई और एक रूपया लाकर ललिता को दिया।

ललिता ने पूछा- ‘शेखर दादा ने देते समय कुछ कहा था?’

‘कुछ भी नहीं! केवल यही कहा कि र्बास्केट की जेब से निकाल लो।’

‘मेरे विषय में तो कुछ नहीं कहते थे?’

‘नहीं! कुछ भी नहीं!’ कहकर वह खेलने में लग गई।

रूपया लाकर ललिता ने उस बूढ़े भिखारी को दिया और चाली गई। आज उसने आशीर्वाद तक न सुने। पता नहीं क्यों उसे कुछ भी अच्छा न लगता था। उसका चित्त परेशान था।

दोपहर के पश्चात् अन्नाकाली को बुलाकर पूछा- ‘अन्नो! आजकल तू अपने शेखर दादा से पढ़ने नहीं जाती?’

‘जाती क्यों नहीं? रोज जाती हूँ!’

ललिता- ‘दादा मेरे बारे में कुछ नहीं पूछते?’

अन्ना- ‘नहीं! हां उन्होंने पूछा था कि ताश खेलने दोपहर को जाती हो या नहीं?’

बेचैनी के साथ ललिता ने फिर कहा- ‘फिर तूने क्या कहा?’

अन्नाकाली- ‘यही कि तुम चारू के यहाँ रोज ताश खेलने जाती हो!’

शेखर दादा ने पूछा- ‘तो खेलता कौन-कौन है?’ मैंने कहा- ‘चारू दीदी, तुम, मौसी औऱ चारू के मामा।’ अच्छा दीदी! तुम सब में अच्छा कौन खेलता है? तुम या चारू के मामा? मौसी तो कहा करती है कि तुम अच्छा खेलती हो!’

यह सुनकर ललिता में मानो आग लग गई। वह डांटकर कहने लगी- ‘यह सब तूने क्यों कहा? पाजिन कहीं की! तू हर बात में आधी खिचड़ी पकाया करती है! चली जा मुंहजली, अब मैं तुझे कभी कुछ न दूंगी।’ यह कहकर ललिता वहाँ से चली गई।

ललिता के इस प्रकार बदलते हुए भावों से अन्नाकाली हैरान हो गई। उसकी कच्ची बुद्धि ने यह न समझा कि ललिता क्यों एकदम बिगड़ गई।

दो दिन से ताश का अड्डा नहीं जमता। ललिता के न आने से मनोरमा का खेल बंद हो गया है। मनोरमा के हृदय में यह संदेह भावना जागृत हो चुकी थी कि गिरीन्द्र ललिता की तरफ आकर्षित हो रहा है। उस पर रीझकर गिरीन्द्र बेचैन होता जा रहा है। मनोरमा ने देखा यह दो दिन गिरीन्द्र ने कितनी परेशानी और बेचैनी से काटे हैं। यही नहीं, उसने बाहर घूमने जाना तक बंद कर दिया है। अब वह केवल कमरे में ही इधर-उधर उठता-बैठता दिन काट देता है।

तीसरे दिन दोपहर के समय उसने बहिन से कहा- ‘बहिन, क्या खेल आज तीन आदमी ही खेलें।’

मनोरमा की इस बात को सुनकर गिरीन्द्र का उत्साह भंग हो गया। वह बोला- ‘कहीं तीन आदमी में भी खेल होता है? उस घर की लड़की-जिसका नाम ललिता है, उसे बुला लो न, जीजी!’

मनोरमा- ‘वह न आएगी।’

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